जटाशंकर में आदिकाल से हो रहा है शिवलिंग का जलाभिषेक, बेहद दुर्गम है यहां का रास्ता


Report manpreet singh 


Raipur chhattisgarh VISHESH :कोरिया , आस्था और भक्ति में जो ताकत होती है वह किसी और चीज में नही होती। इस आस्था और भक्ति का अद्भुत सामंजस्य दिखाई पड़ता है जिला मुख्यालय से लगभग 80 किलोमीटर दूर मनेंद्रगढ़ में स्थित है जटा शंकर मंदिर यह दूर-दूर से श्रद्धालु पहुंचते हैं। घनघोर जंगल में पहाड़ी के नीचे स्थित प्राचीन शिवमंदिर जटाशंकर हैं। दुर्गम वन, पगडंडियों, विकट पथरीली रास्तो को पार कर पहाड़ी के अंदर लगभग 52 हाथ अंदर घुटनों और कोहनियों के बल पर चलकर अंदर भगवान भोलेनाथ के दर्शन पहुंचा जा सकता है। इस मंदिर का नाम जटाशंकर पड़ने के पीछे शिव की प्राचीन शिवलिंग में जटाओं जैसी आकृति साफ दिखाई पड़ती है। गुफा के अंदर गुफा वाले इस मंदिर से कई मान्यताएं जुड़ी हुई हैं, इस संबंध में मंदिर के महंत शिवप्रसाद दास ने बताया कि जटाशंकर का इतिहास काफी पुराना है।


कहा जाता है कि जब भगवान शिव भस्मासुर के डर से पहाड़ियों के अंदर जाकर छुप गये थे तब उनकी जटाओं के अवशेष पत्थरों में बन गये जो आज भी देखे जा सकते हैं। वहीं इस मंदिर में प्रगट हुई भगवान शिव की मूर्ति के ऊपर कुदरती रूप से जल की बूंद लगातार अपने आप गिरती है।


सावन के महीने में श्रद्धालुओं का लगता है तांता


इस प्राचीन शिव मंदिर जटा शंकर धाम को लेकर काफी मान्यताएं जुड़ी हुई हैं। यही वजह है कि शिवरात्रि और सावन के महीने में यहां श्रद्धालुओं का जबरदस्त तांता लगा रहता है। न केवल कोरिया जिले से वरन् आसपास के जिलों से श्रद्धालु अपने परिवार के साथ यहां पहुंचते हैं और भगवान शिव की विधिवत पूजा अर्चना करते हैं।


कोहनियों के बल पर चलकर भगवान भोलेनाथ का दर्शन


इस प्राचीन शिव मंदिर में पहुंचने के लिये सिर्फ पैदल जाने का ही मार्ग है। तकरीबन 450 सीढ़ियों से गुजर कर फिर मंदिर जाने के लिये 52 हाथ अंदर घुटनों और कोहनियों के बल पर चलकर अंदर भगवान भोलेनाथ के दर्शन पहुंचा जा सकता है।


भगवान शिव का 24 घंटे प्राकृतिक रूप से होता है जलाभिषेक


एक ओर जहां भगवान शिव का 24 घंटे प्राकृतिक रूप से जलाभिषेक होते रहता है वहीं यहां आने वाले श्रद्धालुओं को भी बारहों महीने प्राकृतिक रूप से पहाड़ से रिसा हुआ जल पीने के लिये मिलता है। वहीं यह जल इतना ठंडा होता है कि इसमें नहाने से लोगों को कपकपी छूटने लगती है। इसी जल का उपयोग श्रद्धालु पूजा, पाठ, अनुष्ठान के अलावा भोजन प्रसाद बनाने में भी करते


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